उपवास
विषय
वासना
निवृत्ति का
अचूक साधन
अन्न
में भी एक
प्रकार का नशा
होता है। भोजन
करने के
तत्काल बाद
आलस्य के रूप
में इस नशे का प्रायः
सभी लोग अनुभव
करते हैं। पके
हुए अन्न के
नशे में एक
प्रकार की
पार्थिव
शक्ति निहित होती
है, जो
पार्थिव शरीर
का संयोग पाकर
दुगनी हो जाती
है। इस शक्ति
को
शास्त्रकारों
ने आधिभौतिक
शक्ति कहा है।
इस
शक्ति की
प्रबलता में
वह
आध्यात्मिक
शक्ति, जो हम
पूजा उपासना
के माध्यम से
एकत्रित करना
चाहते हैं,
नष्ट हो जाती
है। अतः
भारतीय महर्षियों
ने सम्पूर्ण
आध्यात्मिक
अनुष्ठानों
में उपवास का
प्रथम स्थान
रखा है।
विषय
विनिवर्तन्ते
निराहारस्य
देहिनः।
गीता
के अनुसार
उपवास,
विषय-वासना की
निवृत्ति का
अचूक साधन है।
जिसका पेट
खाली हो उसे
फालतू की
मटरगस्ती
नहीं सझती।
अतः शरीर,
इन्द्रियों
और मन पर विजय
पाने के लिए
जितासन और
जिताहार होने
की परम
आवश्यकता है।
आयुर्वेद
तथा आधुनिक
विज्ञान
दोनों का एक
ही निष्कर्ष
है कि व्रत और
उपवासों जहाँ
अनेक शारीरिक
व्याधियाँ
समूल नष्ट हो
जाती हैं,
वहाँ मानसिक
व्याधियों के
शमन का भी यह
एक अमोघ उपाय
है। इससे
जठराग्नि
प्रदीप्त
होती है व शरीरशुद्धि
होती है।
फलाहार
का तात्पर्य
उस दिन आहार
में सिर्फ कुछ
फलों का सेवन
करने से है
लेकिन आज इसका
अर्थ बदलकर
फलाहार में से
अपभ्रंश होकर
फरियाल बन गया
है और इस
फरियाल में
लोग
ठूँस-ठूँसकर
साबुदाने की
खिचड़ी या
भोजन से भी
अधिक भारी,
गरिष्ठ,
चिकना,
तला-गुला व
मिर्च मसाले
युक्त आहार का
सेवन करने लगे
हैं। उनसे
अनुरोध है कि
वे उपवास न ही
करें तो अच्छा
है क्योंकि
इससे उपवास
जैसे पवित्र
शब्द की तो
बदनामी होती
है, साथ ही साथ
शरीर को और अधिक
नुक्सान
पहुँचता है।
उनके इस
अविवेकपूर्ण
कृत्य से लाभ
के बदले
उन्हें हानि
ही हो रही है।
सप्ताह
में एक दिन तो
व्रत रखना ही
चाहिए। इससे
आमाशय, यकृत
एवं
पाचनतंत्र को
विश्राम मिलता
है तथा उनकी
स्वतः ही सफाई
हो जाती है।
इस प्रक्रिया
से पाचनतंत्र
मजबूत हो जाता
है तथा व्यक्ति
की आंतरिक
शक्ति के
साथ-साथ उसकी
आयु भी बढ़ती
है।
भारतीय
जीवनचर्या
में व्रत एवं
उपवास का
विशेष
महत्त्व है। उनका
अनुपालन
धार्मिक
दृष्टि से
किया जाता है
परंतु
व्रतोपवास
करने से शरीर
भी स्वस्थ रहता
है।
उप
यानी समीप और
वास यानी
रहना। उपवास
का आध्यात्मिक
अर्थ है –
ब्रह्म-परमात्मा
के निकट रहना।
उपवास का व्यावहारिक
अर्थ है –
निराहार
रहना।
निराहार रहने
से भगवदभजन और
आत्मचिंतन
में मदद मिलती
है। वृत्ति
अंतर्मुख
होने लगती है।
उपवास
पुण्यदायी,
आमदोषहर, अग्निप्रदीपक,
स्फूर्तिदायक
तथा मन को
प्रसन्नता
देने वाला
माना गया है।
अतः यथाकाल,
यथाविधि
उपवास करके
धर्म तथा
स्वास्थ्य
लाभ करना चाहिए।
आहारं
पचति शिखी
दोषान्
आहारवर्जितः।
अर्थात्
पेट की अग्नि
आहार को पचाती
है और उपवास
दोषों को
पचाता है।
उपवास से
पाचनशक्ति बढ़ती
है। उपवासकाल
में शरीर में
क्या मल उत्पन्न
नहीं होता और
जीवनशक्ति को
पुराना जमा मल
निकालने का
अवसर मिलता
है। मल-मूत्र
विसर्जन
सम्यक होने
लगता है, शरीर
में हलकापन
आता है तथा
अति
निद्रा-तन्द्रा
का नाश होता
है।
इसी
कारण
भारतवर्ष के
सनातन
धर्मावलम्बी
प्रायः
एकादशी,
अमावस्या,
पूर्णिमा या
पर्वों पर
उपवास किया
करते हैं,
क्योंकि उन
दिनों जठराग्नि
मंद होती है
और सहज ही
प्राणों का
ऊर्ध्वगमन
होता है।
शरीर-शोधन के
लिए चैत्र,
श्रावण एवं
भाद्रपद
महीने अधिक
महत्त्वपूर्ण
होते हैं।
नवरात्रियों
के दिनों में
भी व्रत करने का
बहुत प्रचलन
है। यह अनुभव
से जाना गया
है कि एकादशी
से पूर्णिमा
तथा एकादशी से
अमावस्या तक
का काल रोग की
उग्रता में भी
अधिक सहायक
होता है,
क्योंकि जैसे
सूर्य एवं
चन्द्रमा के
परिभ्रमण के
परिणामस्वरूप
समुद्र में
उक्त तिथियों
के दिनों में
विशेष
उतार-चढ़ाव
होता है, उसी
प्रकार उक्त
क्रिया के
परिणामस्वरूप
हमारे शरीर
में रोगों की
वृद्धि होती
है। इसीलिए इन
चार तिथियों
में उपवास का
विशेष महत्त्व
है।
शारीरिक
विकारः अजीर्ण,
उलटी,
मंदाग्नि,
शरीर में
भारीपन, सिरदर्द,
बुखार,
यकृत-विकार,
श्वास रोग,
मोटापा, संधिवात,
सम्पूर्ण
शरीर में
सूजन, खाँसी,
दस्त लगना,
कब्जियत,
पेटदर्द, मुँह
में छाले,
चमड़ी के रोग,
गुर्दे के
विकार,
पक्षाघात आदि
व्याधियों
में रोग के
अनुसार छोटे
या बड़े रूप
में उपवास
रखना लाभकारी
होता है।
मानसिक
विकारः मन पर
भी उपवास का
बहुमुखी
प्रभाव पड़ता
है। उपवास से
चित्त की
वृत्तियाँ
रुकती हैं और
मनुष्य जब
अपनी चित्त की
वृत्तियों को
रोकने लग जाता
है, तब देह
रहते हुए भी
सुख-दुःख,
हर्ष-विषाद पैदा
नहीं होते।
उपवास से
सात्त्विक
भाव बढ़ता है,
राजस और तामस
भाव का नाश
होने लगता है।
मनोबल तथा
आत्मबल में
वृद्धि होने
लगती है। अतः अति
निद्रा,
तन्द्रा,
उन्माद(पागलपन),
बेचैनी, घबराहट,
भयभीत या
शोकातुर रहना,
मन की दीनता, अप्रसन्नता,
दुःख, क्रोध,
शोक, ईर्ष्या
आदि मानसिक
रोगों में
औषधोपचार सफल
न होने पर
उपवास विशेष
लाभ देता है।
इतना ही नहीं
अपितु नियमित
उपवास के
द्वारा
मानसिक
विकारों की
उत्पत्ति भी
रोकी जा सकती
है।
उपवास
पद्धतिः इन
दिनों पूर्ण
विश्राम लेना
चाहिए। मौन रह
सके तो उत्तम।
उपवास में
हमेशा पहले एक
दो दिन ही
कठिन लगते
हैं। कड़क
उपवास एक दो
बार ही कठिन
ही लगता है
फिर तो मन और
शरीर, दोनों
का औपवासिक
स्थिति का
अभ्यास हो
जाता है उसमें
आनंद आने लगता
है।
सामान्यतः
चार प्रकार के
उपवास
प्रचलित हैं- निराहार,
फलाहार,
दुग्धाहार और
रूढ़िगत।
निराहारः
निराहार
व्रत श्रेष्ठ
है। यह दो
प्रकार का
होता है –
निर्जल एवं
सजल। निर्जल
व्रत में पानी
का भी सेवन
नहीं किया
जाता। सजल
व्रत में
गुनगुना पानी
अथवा गुनगुने
पानी में
नींबू का रस
मिलाकर ले
सकते हैं।
इससे पेट में
गैस नहीं बन
पाती। ऐसा
उपवास दो या
तीन दिन रख
सकते हैं।
अधिक समय तक
ऐसा उपवास
करना हो तो
चिकित्सक की
देख-रेख में
ही करना
चाहिए। शरीर
में कहीं भी
दर्द हो तो
नींबू का सेवन
न करें।
फलाहारः
इसमें
केवल फल अथवा
फलों के रस पर
ही निर्वाह किया
जाता है।
उपवास के लिए
अनार, अंगूर,
सेब और पपीता
ठीक हैं। इसके
साथ गुनगुने
पानी में नींबू
का रस मिलाकर
ले सकते हैं।
नींबू से पाचन-तंत्र
की सफाई में
सहायता मिलती
है। ऐसा उपवास
6-7 दिन से
ज्यादा नहीं
करना चाहिए।
दुग्धाहारः
ऐसे
उपवास में दिन
में 3 से 8 बार
मलाई-विहीन
दूध 250 से 500 मि.ली.
मात्रा में
लिया जाता है।
गाय का दूध
उत्तम आहार
है। मनुष्य
को स्वस्थ व
दीर्घजीवी
बनानेवाला
गाय के दूध
जैसा दूसरा
कोई श्रेष्ठ
आहार नहीं है।
गाय का
दूध
जीर्णज्वर,
ग्रहणी,
पांडुरोग,
यकृत के रोग,
प्लीहा के
रोग, दाह,
हृदयरोग,
रक्तपित्त
आदि में
श्रेष्ठ है।
श्वास(दमा),
क्षयरोग तथा
पुरानी सर्दी
के लिए बकरी
का दूध उत्तम
है।
रूढ़िगतः
24 घंटों
में एक बार
सादा, हलका,
नमक, चीनी व
चिकनाईरहित
भोजन करें। इस
एक बार के
भोजन के
अतिरिक्त
किसी भी
पदार्थ का
सेवन न करें।
केवल सादा पानी
अथवा गुनगुने
पानी में
नींबू ले सकते
हैं।
विशेषः
जिन
लोगों को
हमेशा कफ,
जुकाम, दमा,
सूजन, जोड़ों
में दर्द,
निम्न
रक्तचाप रहता
हो वे नींबू
का उपयोग न
करें।
उपरोक्त
उपवासों में
केवल एक बात
का ही ध्यान रखना
आवश्यक है कि
मल-मूत्र व
पसीने का
निष्कासन ठीक
तरह से होता
रहे, अन्यथा
शरीर के अंगों
से निकली हुई
गंदगी फिर से
रक्तप्रवाह
में मिल सकती
है। आवश्यक हो
तो बाद में
एनिमा का
प्रयोग करें।
लोग
उपवास तो कर
लेते हैं,
लेकिन उपवास
छोड़ने के बाद
क्या खाना
चाहिए इस बात
पर ध्यान नहीं
देते, इसीलिए
अधिक लाभ नहीं
होता। जितने
दिन उपवास
करें, उपवास
छोड़ने के बाद
उतने ही दिन मूँग
का पानी लेना
चाहिए तथा
उसके दुगने
दिन तक मूँग
उबालकर लेनी
चाहिए।
तत्पश्चात
खिचड़ी, चावल आदि
तथा बाद में
सामान्य भोजन
करना चाहिए।
उपवास
के नाम पर
व्रत के दिन
आलू, अरबी, साग,
केला,
सिंघाड़े आदि
का हलवा, खीर,
पेड़े, बर्फी
आदि गरिष्ठ
भोजन भरपेट
करने से रोगों
की वृद्धि होती
है। अतः इनका
सेवन न करें।
सावधानीः
गर्भवती
स्त्री,
क्षयरोगी,
अल्सर व
मिर्गी के रोगी
को व अति
कमजोर
व्यक्ति को
उपवास नहीं करना
चाहिए।
मधुमेह के
मरीजों को
वैद्यकीय सलाह
से ही उपवास
करने चाहिए।
शास्त्रों
में
अग्निहोत्री
तथा
ब्रह्मचारी
को अनुपवास्य
माना गया है।