!! श्री महाकाली !!
दुर्गाजी का एक रुप कालीजी है। यह देवी विशेष रुप से शत्रुसंहार, विघ्ननिवारण, संकटनाश और सुरक्षा की अधीश्वरी है।
यह तथ्य प्रसिद्ध है कि इनकी कृपा मात्र से भक्त को ज्ञान, सम्पति, यश और अन्य सभी भौतिक सुखसमृद्धि के साधन प्राप्त हो सकते है, पर विशेष रुप से इनकी उपासन्न सुरक्षा, शौर्य, पराक्रम, युद्ध, विवाद और प्रभाव विस्तर के संदर्भ में की जाती है। कालीजी की रुपरेखा भयानक है। देखकर सहसा रोमांच हो आता है। पर वह उनका दुष्टदलन रुप है।
भक्तों के प्रति तो वे सदैव ही परम दयालु और ममतामयी रहती है। उनकी पूजा के द्वारा व्यक्ति हर प्रकार की सुरक्षा और समृद्धि प्राप्त कर सकता है।
विधि -
लाल आसन पर कालीजी की प्रतिमा अथवा चित्र या यन्त्र स्थापित करके, लाल चन्दन, पुष्प तथा धूपदीप से पूजा करके मन्त्र जप करना चाहिए। नियमत रुप से श्रद्धापूर्वक आराधना करने वालि जनों को कालीजी(प्रायः सभी शक्ति स्वरुप) स्वप्न मे दर्शन देती है। ऐसे दर्शन से घबङाना नहीं चाहिए और उस स्वप्न की कहीं चर्चा भी नही चाहिए। कालीजी की पुजा में बली का विधान भी है। किन्त सात्विक उपासना की दृष्टि से बलि के नाम पर नारियल अथवा किसी फल का प्रयोग किया जा सकता है।
वैसै, देवी - देवता मात्र श्रद्धा से ही प्रसन्न हो जाते है, ये भौतिक उपादान उनकी दृष्टि में बहुत महत्वपूर्ण नहीं होते । कुछ भी न हो और कोई साधक केवल श्रद्धापूर्वक उनकी स्तुति ही करता रहे, तो भी वह सफल मनोरथ हो सकता है।
धयान स्तुति-
खडगं गदेषु चाप परिघां शूलम भुशुंडी शिरः
शंखं संदधतीं करैस्तिनयनां सर्वाग भूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्य पाद द्शकां सेवै महाकालिकाम्।
यामस्तौत्स्वपितो हरौ कमलजो हन्तुं मधु कैटभम्॥
जप मन्त्र-
ॐ क्रां क्रीं क्रूं कालिकाय नमः।
प्रार्थना-
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै ससतं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै निततां प्रणतां स्मताम्॥
!! महाकाली चालीसा !!
दोहा मात श्री महाकालिका ध्याऊँ शीश नवाय ।
जान मोहि निज दास सब दीजै काज बनाय ॥
नमो महा कालिका भवानी। महिमा अमित न जाय बखानी॥
तुम्हारो यश तिहुँ लोकन छायो। सुर नर मुनिन सबन गुण गायो॥
परी गाढ़ देवन पर जब जब। कियो सहाय मात तुम तब तब॥
महाकालिका घोर स्वरूपा। सोहत श्यामल बदन अनूपा॥
जिभ्या लाल दन्त विकराला। तीन नेत्र गल मुण्डन माला॥
चार भुज शिव शोभित आसन। खड्ग खप्पर कीन्हें सब धारण॥
रहें योगिनी चौसठ संगा। दैत्यन के मद कीन्हा भंगा॥
चण्ड मुण्ड को पटक पछारा। पल में रक्तबीज को मारा॥
दियो सहजन दैत्यन को मारी। मच्यो मध्य रण हाहाकारी॥
कीन्हो है फिर क्रोध अपारा। बढ़ी अगारी करत संहारा॥
देख दशा सब सुर घबड़ाये। पास शम्भू के हैं फिर धाये॥
विनय करी शंकर की जा के। हाल युद्ध का दियो बता के॥
तब शिव दियो देह विस्तारी। गयो लेट आगे त्रिपुरारी॥
ज्यों ही काली बढ़ी अंगारी। खड़ा पैर उर दियो निहारी॥
देखा महादेव को जबही। जीभ काढ़ि लज्जित भई तबही॥
भई शान्ति चहुँ आनन्द छायो। नभ से सुरन सुमन बरसायो॥
जय जय जय ध्वनि भई आकाशा। सुर नर मुनि सब हुए हुलाशा॥
दुष्टन के तुम मारन कारन। कीन्हा चार रूप निज धारण॥
चण्डी दुर्गा काली माई। और महा काली कहलाई॥
पूजत तुमहि सकल संसारा। करत सदा डर ध्यान तुम्हारा॥
मैं शरणागत मात तिहारी। करौं आय अब मोहि सुखारी॥
सुमिरौ महा कालिका माई। होउ सहाय मात तुम आई॥
धरूँ ध्यान निश दिन तब माता। सकल दुःख मातु करहु निपाता॥
आओ मात न देर लगाओ। मम शत्रुघ्न को पकड़ नशाओ॥
सुनहु मात यह विनय हमारी। पूरण हो अभिलाषा सारी॥
मात करहु तुम रक्षा आके। मम शत्रुघ्न को देव मिटा को॥
निश वासर मैं तुम्हें मनाऊं। सदा तुम्हारे ही गुण गाउं॥
दया दृष्टि अब मोपर कीजै। रहूँ सुखी ये ही वर दीजै॥
नमो नमो निज काज सैवारनि। नमो नमो हे खलन विदारनि॥
नमो नमो जन बाधा हरनी। नमो नमो दुष्टन मद छरनी॥
नमो नमो जय काली महारानी। त्रिभुवन में नहिं तुम्हरी सानी॥
भक्तन पे हो मात दयाला। काटहु आय सकल भव जाला॥
मैं हूँ शरण तुम्हारी अम्बा। आवहू बेगि न करहु विलम्बा॥
मुझ पर होके मात दयाला। सब विधि कीजै मोहि निहाला॥
करे नित्य जो तुम्हरो पूजन। ताके काज होय सब पूरन॥
निर्धन हो जो बहु धन पावै। दुश्मन हो सो मित्र हो जावै॥
जिन घर हो भूत बैताला। भागि जाय घर से तत्काला॥
रहे नही फिर दुःख लवलेशा। मिट जाय जो होय कलेशा॥
जो कुछ इच्छा होवें मन में। संशय नहिं पूरन हो छण में॥
औरहु फल संसारिक जेते। तेरी कृपा मिलैं सब तेते॥
दोहा महाकलिका की पढ़ै नित चालीसा जोय।
मनवांछित फल पावहि गोविन्द जानौ सोय॥
महाकाली मंत्र :-
ऊं ए क्लीं ह्लीं श्रीं ह्सौ: ऐं ह्सौ: श्रीं ह्लीं क्लीं ऐं जूं क्लीं सं लं श्रीं र: अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लं लृं एं ऐं ओं औं अं अ: ऊं कं खं गं घं डं ऊं चं छं जं झं त्रं ऊं टं ठं डं ढं णं ऊं तं थं दं धं नं ऊं पं फं बं भं मं ऊं यं रं लं वं ऊं शं षं हं क्षं स्वाहा।
विधि :-
यह महाकाली का उग्र मंत्र है। इसकी साधना विंध्याचल के अष्टभुजा पर्वत पर त्रिकोण में स्थित काली खोह में करने से शीघ्र सिद्धि होती है अथवा श्मशान में भी साधना की जा सकती है, लेकिन घर में साधना नहीं करनी चाहिए। जप संख्या 1100 है, जिन्हें 90 दिन तक अवश्य करना चाहिए। दिन में महाकाली की पंचोपचार पूजा करके यथासंभव फलाहार करते हुए निर्मलता, सावधानी, निभीर्कतापूर्वक जप करने से महाकाली सिद्धि प्रदान करती हैं। इसमें होमादि की आवश्यकता नहीं होती।
फल :-
यह मंत्र सार्वभौम है। इससे सभी प्रकार के सुमंगलों, मोहन, मारण, उच्चाटनादि तंत्रोक्त षड्कर्म की सिद्धि होती है।
तारा :-
ऊं ह्लीं आधारशक्ति तारायै पृथ्वीयां नम: पूजयीतो असि नम:
इस मंत्र का पुरश्चरण 32 लाख जप है। जपोपरांत होम द्रव्यों से होम करना चाहिए।
फल :-
सिद्धि प्राप्ति के बाद साधक को तर्कशक्ति, शास्त्र ज्ञान, बुद्धि कौशल आदि की प्राप्ति होती है।
भुवनेश्वरी :-
ह्लीं
अमावस्या को लकड़ी के पटरे पर उक्त मंत्र लिखकर गर्भवती स्त्री को दिखाने से उसे सुखद प्रसव होता है। गले तक जल में खड़े होकर, जल में ही सूर्यमंडल को देखते हुए तीन हजार बार मंत्र का जप करने वाला मनोनुकूल कन्या का वरण करता है। अभिमंत्रित अन्न का सेवन करने से लक्ष्मी की वृद्धि होती है। कमल पुष्पों से होम करने पर राजा का वशीकरण होता है।
त्रिपुर सुंदरी :-
मंत्र
श्रीं ह्लीं क्लीं एं सौ: ऊं ह्लीं श्रीं कएइलह्लीं हसकहलह्लीं संकलह्लीं सौ: एं क्लीं ह्लीं श्रीं
विधि :-
इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जप के पश्चात त्रिमधुर (घी, शहद, शक्कर) मिश्रित कनेर के पुष्पों से होम करना चाहिए।
फल
कमल पुष्पों के होम से धन व संपदा प्राप्ति, दही के होम से उपद्रव नाश, लाजा के होम से राज्य प्राप्ति, कपूर, कुमकुम व कस्तूरी के होम से कामदेव से भी अधिक सौंदर्य की प्राप्ति होती है। अंगूर के होम से वांछित सिद्धि व तिल के होम से मनोभिलाषा पूर्ति व गुग्गुल के होम से दुखों का नाश होता है। कपूर के होमत्व से कवित्व शक्ति आती है।
छिन्नमस्ता :-
ऊं श्रीं ह्लीं ह्लीं वज्र वैरोचनीये ह्लीं ह्लीं फट् स्वाहा
इस मंत्र का पुरश्चरण चार लाख जप है। जप का दशांश होम पलाश या बिल्व फलों से करना चाहिए।
तिल व अक्षतों के होम से सर्वजन वशीकरण, स्त्री के रज से होम करने पर आकर्षण, श्वेत कनेर पुष्पों से होम करने से रोग मुक्ति, मालती पुष्पों के होम से वाचासिद्धि व चंपा के पुष्पों से होम करने पर सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
धूमावती :_
मंत्र
ऊं धूं धूं धूमावती स्वाहा
इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जप का दशांश तिल मिश्रित घृत से होम करना चाहिए।
नीम की पत्ती व कौए के पंख पर उक्त मंत्र खओ 108 बार पढ़कर देवता का नाम लेते हुए धूप दिखाने से शत्रुओं में परस्पर विग्रह होता है।
बगलामुखी :-
ऊं ह्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिव्हां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ऊं स्वाहा
इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जपोपरांत चंपा के पुष्प से दशांश होम करना चाहिए। इस साधना में पीत वर्ण की महत्ता है। इंद्रवारुणी की जड़ को सात बार अभिमंत्रित करके पानी में डालने से वर्षा का स्तंभन होता है। सभी मनोरथों की पूर्ति के लिए एकांत में एक लाख बार मंत्र का जप करें। शहद व शर्करायुत तिलों से होम करने पर वशीकरण, तेलयुत नीम के पत्तों से होम करने पर हरताल, शहद, घृत व शर्करायुत लवण से होम करने पर आकर्षण होता है।
मातंगी :-
ऊं ह्लीं एं श्रीं नमो भगवति उच्छिष्ट चांडालि श्रीमातंगेश्वरि सर्वजन वंशकरि स्वाहा
इस मंत्र का पुरश्चरण दस हजार जप है। जप का दशांश शहद व महुआ के पुष्पों से होम करना चाहिए। काम्य प्रयोग से पूर्व एक हजार बार मूलमंत्र का जाप करके पुन: शहदयुक्त महुआ के पुष्पों से होम करना चाहिए। पलाश के पत्तों या पुष्पों के होम से वशीकरण, मल्लिका के पुष्पों के होम से लाभ, बिल्व पुष्पों से राज्य प्राप्ति, नमक से आकर्षण होता है।
कमला :-
ऊं नम: कमलवासिन्यै स्वाहा
दस लाख जप करें। दशांश शहद, घी व शर्करा युक्त लाल कमलों से होम करें, तो सभी कामनाएं पूर्ण होंगी। समुद्र से गिरने वाली नदी के जल में आकंठ जप करने पर सभी प्रकार की संपदा मिलती है।
महालक्ष्मी :-
ऊं श्रीं ह्लीं श्रीं कमले कमलालयै प्रसीद प्रसीद ऊं श्रीं ह्लीं श्रीं महालक्ष्मयै नम:
एक लाख बार जप करें। शहद, घी व शर्करायुक्त बिल्व फलों से दशांश होम करने से साधक के घर में लक्ष्मी वास करती है। यदि किसी को अधिक धन की प्रबल कामना हो, तो वह सत्य वाचन करे, लक्ष्मी मंत्र व श्रीसूक्त का पाठ व मंत्र करे। पूर्वाभिमुख होकर भोजन करे व वार्तादि भी पूर्वाभिमुख होकर करे। जल में नग्न होकर स्नान न करें। तेल मलकर भोजन करें। अनावश्यक रूप से भू-खनन न करें।
// श्री महाकाली यन्त्र //
श्मशान साधना मे काली उपासना का बङा महत्व है। इसी सन्दर्भ मे महाकाली यन्त्र का प्रयोग शत्रु नाश, मोहन, मारण, उच्चाट्न आदि कार्यों में प्रयुक्त होता है। मध्य मे बिन्दू, पांच उल्ट कोण, तीन वृत कोण, अष्टदल वृत एवं भूरपुर से आवृत महाकाली का यन्त्र तैयार करे।
इस यन्त्र का पूजन करते समय शव पर आरुढ, मुण्ड्माला धारण की हुई, खड्ग, त्रिशूल, खप्पर व एक हाथ मे नर-मुण्ड धारण की हुई, रक्त जिह्वा लपलपाती हुई भयंकर स्वरुप वाली महाकाली का ध्यान किया जाता है। जब अन्य विद्यायें विफल हो जाती है तब इस यन्त्र का सहारा लिया जाता है।
महाकाली की उपासना अमोघ मानी गई है। इस यन्त्र के नित्य पूजन से अरिष्ट बाधाओं का स्वतः ही नाश होकर शत्रुओ का पराभव होता है। शक्ति के उपासकों के लिए यह यन्त्र विशेष फलदायी है। चैत्र, आषाढ, आश्विन एवं माघ की अष्टमी इसकी साधना हेतु सर्वश्रेष्ठ काल माना गया है।
आद्या काली स्तोत्र :-
त्रिलोक्य विजयस्थ कवचस्य शिव ऋषि ,
अनुष्टुप छन्दः, आद्य काली देवता, माया बीजं,
रमा कीलकम , काम्य सिद्धि विनियोगः || १ ||
ह्रीं आद्य मे शिरः पातु श्रीं काली वदन ममं,
हृदयं क्रीं परा शक्तिः पायात कंठं परात्परा ||२||
नेत्रौ पातु जगद्धात्री करनौ रक्षतु शंकरी,
घ्रान्नम पातु महा माया रसानां सर्व मंगला ||३||
दन्तान रक्षतु कौमारी कपोलो कमलालया,
औष्ठांधारौं शामा रक्षेत चिबुकं चारु हासिनि ||४|
ग्रीवां पायात क्लेशानी ककुत पातु कृपा मयी,
द्वौ बाहूबाहुदा रक्षेत करौ कैवल्य दायिनी ||५||
स्कन्धौ कपर्दिनी पातु पृष्ठं त्रिलोक्य तारिनी,
पार्श्वे पायादपर्न्ना मे कोटिम मे कम्त्थासना ||६||
नभौ पातु विशालाक्षी प्रजा स्थानं प्रभावती,
उरू रक्षतु कल्यांनी पादौ मे पातु पार्वती ||७||
जयदुर्गे-वतु प्राणान सर्वागम सर्व सिद्धिना,
रक्षा हीनां तू यत स्थानं वर्जितं कवचेन च ||८||
इति ते कथितं दिव्य त्रिलोक्य विजयाभिधम,
कवचम कालिका देव्या आद्यायाह परमादभुतम ||९||
पूजा काले पठेद यस्तु आद्याधिकृत मानसः,
सर्वान कामानवाप्नोती तस्याद्या सुप्रसीदती ||१०||
मंत्र सिद्धिर्वा-वेदाषु किकराह शुद्रसिद्धयः,
अपुत्रो लभते पुत्र धनार्थी प्राप्नुयाद धनं ||११|
विद्यार्थी लभते विद्याम कामो कामान्वाप्नुयात
सह्स्त्रावृति पाठेन वर्मन्नोस्य पुरस्क्रिया ||१२||
पुरुश्चरन्न सम्पन्नम यथोक्त फलदं भवेत्,
चंदनागरू कस्तूरी कुम्कुमै रक्त चंदनै ||१३||
भूर्जे विलिख्य गुटिका स्वर्नस्याम धार्येद यदि,
शिखायां दक्षिणे बाह़ो कंठे वा साधकः कटी ||१४||
तस्याद्या कालिका वश्या वांछितार्थ प्रयछती,
न कुत्रापि भायं तस्य सर्वत्र विजयी कविः ||१५||
अरोगी चिर जीवी स्यात बलवान धारण शाम,
सर्वविद्यासु निपुण सर्व शास्त्रार्थ तत्त्व वित् ||१६||
वशे तस्य माहि पाला भोग मोक्षै कर स्थितो,
कलि कल्मष युक्तानां निःश्रेयस कर परम ||१७||
जय सनातन सेना............
जय जय श्री राम........
जय महाकाल...........
दुर्गाजी का एक रुप कालीजी है। यह देवी विशेष रुप से शत्रुसंहार, विघ्ननिवारण, संकटनाश और सुरक्षा की अधीश्वरी है।
यह तथ्य प्रसिद्ध है कि इनकी कृपा मात्र से भक्त को ज्ञान, सम्पति, यश और अन्य सभी भौतिक सुखसमृद्धि के साधन प्राप्त हो सकते है, पर विशेष रुप से इनकी उपासन्न सुरक्षा, शौर्य, पराक्रम, युद्ध, विवाद और प्रभाव विस्तर के संदर्भ में की जाती है। कालीजी की रुपरेखा भयानक है। देखकर सहसा रोमांच हो आता है। पर वह उनका दुष्टदलन रुप है।
भक्तों के प्रति तो वे सदैव ही परम दयालु और ममतामयी रहती है। उनकी पूजा के द्वारा व्यक्ति हर प्रकार की सुरक्षा और समृद्धि प्राप्त कर सकता है।
विधि -
लाल आसन पर कालीजी की प्रतिमा अथवा चित्र या यन्त्र स्थापित करके, लाल चन्दन, पुष्प तथा धूपदीप से पूजा करके मन्त्र जप करना चाहिए। नियमत रुप से श्रद्धापूर्वक आराधना करने वालि जनों को कालीजी(प्रायः सभी शक्ति स्वरुप) स्वप्न मे दर्शन देती है। ऐसे दर्शन से घबङाना नहीं चाहिए और उस स्वप्न की कहीं चर्चा भी नही चाहिए। कालीजी की पुजा में बली का विधान भी है। किन्त सात्विक उपासना की दृष्टि से बलि के नाम पर नारियल अथवा किसी फल का प्रयोग किया जा सकता है।
वैसै, देवी - देवता मात्र श्रद्धा से ही प्रसन्न हो जाते है, ये भौतिक उपादान उनकी दृष्टि में बहुत महत्वपूर्ण नहीं होते । कुछ भी न हो और कोई साधक केवल श्रद्धापूर्वक उनकी स्तुति ही करता रहे, तो भी वह सफल मनोरथ हो सकता है।
धयान स्तुति-
खडगं गदेषु चाप परिघां शूलम भुशुंडी शिरः
शंखं संदधतीं करैस्तिनयनां सर्वाग भूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्य पाद द्शकां सेवै महाकालिकाम्।
यामस्तौत्स्वपितो हरौ कमलजो हन्तुं मधु कैटभम्॥
जप मन्त्र-
ॐ क्रां क्रीं क्रूं कालिकाय नमः।
प्रार्थना-
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै ससतं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै निततां प्रणतां स्मताम्॥
!! महाकाली चालीसा !!
दोहा मात श्री महाकालिका ध्याऊँ शीश नवाय ।
जान मोहि निज दास सब दीजै काज बनाय ॥
नमो महा कालिका भवानी। महिमा अमित न जाय बखानी॥
तुम्हारो यश तिहुँ लोकन छायो। सुर नर मुनिन सबन गुण गायो॥
परी गाढ़ देवन पर जब जब। कियो सहाय मात तुम तब तब॥
महाकालिका घोर स्वरूपा। सोहत श्यामल बदन अनूपा॥
जिभ्या लाल दन्त विकराला। तीन नेत्र गल मुण्डन माला॥
चार भुज शिव शोभित आसन। खड्ग खप्पर कीन्हें सब धारण॥
रहें योगिनी चौसठ संगा। दैत्यन के मद कीन्हा भंगा॥
चण्ड मुण्ड को पटक पछारा। पल में रक्तबीज को मारा॥
दियो सहजन दैत्यन को मारी। मच्यो मध्य रण हाहाकारी॥
कीन्हो है फिर क्रोध अपारा। बढ़ी अगारी करत संहारा॥
देख दशा सब सुर घबड़ाये। पास शम्भू के हैं फिर धाये॥
विनय करी शंकर की जा के। हाल युद्ध का दियो बता के॥
तब शिव दियो देह विस्तारी। गयो लेट आगे त्रिपुरारी॥
ज्यों ही काली बढ़ी अंगारी। खड़ा पैर उर दियो निहारी॥
देखा महादेव को जबही। जीभ काढ़ि लज्जित भई तबही॥
भई शान्ति चहुँ आनन्द छायो। नभ से सुरन सुमन बरसायो॥
जय जय जय ध्वनि भई आकाशा। सुर नर मुनि सब हुए हुलाशा॥
दुष्टन के तुम मारन कारन। कीन्हा चार रूप निज धारण॥
चण्डी दुर्गा काली माई। और महा काली कहलाई॥
पूजत तुमहि सकल संसारा। करत सदा डर ध्यान तुम्हारा॥
मैं शरणागत मात तिहारी। करौं आय अब मोहि सुखारी॥
सुमिरौ महा कालिका माई। होउ सहाय मात तुम आई॥
धरूँ ध्यान निश दिन तब माता। सकल दुःख मातु करहु निपाता॥
आओ मात न देर लगाओ। मम शत्रुघ्न को पकड़ नशाओ॥
सुनहु मात यह विनय हमारी। पूरण हो अभिलाषा सारी॥
मात करहु तुम रक्षा आके। मम शत्रुघ्न को देव मिटा को॥
निश वासर मैं तुम्हें मनाऊं। सदा तुम्हारे ही गुण गाउं॥
दया दृष्टि अब मोपर कीजै। रहूँ सुखी ये ही वर दीजै॥
नमो नमो निज काज सैवारनि। नमो नमो हे खलन विदारनि॥
नमो नमो जन बाधा हरनी। नमो नमो दुष्टन मद छरनी॥
नमो नमो जय काली महारानी। त्रिभुवन में नहिं तुम्हरी सानी॥
भक्तन पे हो मात दयाला। काटहु आय सकल भव जाला॥
मैं हूँ शरण तुम्हारी अम्बा। आवहू बेगि न करहु विलम्बा॥
मुझ पर होके मात दयाला। सब विधि कीजै मोहि निहाला॥
करे नित्य जो तुम्हरो पूजन। ताके काज होय सब पूरन॥
निर्धन हो जो बहु धन पावै। दुश्मन हो सो मित्र हो जावै॥
जिन घर हो भूत बैताला। भागि जाय घर से तत्काला॥
रहे नही फिर दुःख लवलेशा। मिट जाय जो होय कलेशा॥
जो कुछ इच्छा होवें मन में। संशय नहिं पूरन हो छण में॥
औरहु फल संसारिक जेते। तेरी कृपा मिलैं सब तेते॥
दोहा महाकलिका की पढ़ै नित चालीसा जोय।
मनवांछित फल पावहि गोविन्द जानौ सोय॥
महाकाली मंत्र :-
ऊं ए क्लीं ह्लीं श्रीं ह्सौ: ऐं ह्सौ: श्रीं ह्लीं क्लीं ऐं जूं क्लीं सं लं श्रीं र: अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लं लृं एं ऐं ओं औं अं अ: ऊं कं खं गं घं डं ऊं चं छं जं झं त्रं ऊं टं ठं डं ढं णं ऊं तं थं दं धं नं ऊं पं फं बं भं मं ऊं यं रं लं वं ऊं शं षं हं क्षं स्वाहा।
विधि :-
यह महाकाली का उग्र मंत्र है। इसकी साधना विंध्याचल के अष्टभुजा पर्वत पर त्रिकोण में स्थित काली खोह में करने से शीघ्र सिद्धि होती है अथवा श्मशान में भी साधना की जा सकती है, लेकिन घर में साधना नहीं करनी चाहिए। जप संख्या 1100 है, जिन्हें 90 दिन तक अवश्य करना चाहिए। दिन में महाकाली की पंचोपचार पूजा करके यथासंभव फलाहार करते हुए निर्मलता, सावधानी, निभीर्कतापूर्वक जप करने से महाकाली सिद्धि प्रदान करती हैं। इसमें होमादि की आवश्यकता नहीं होती।
फल :-
यह मंत्र सार्वभौम है। इससे सभी प्रकार के सुमंगलों, मोहन, मारण, उच्चाटनादि तंत्रोक्त षड्कर्म की सिद्धि होती है।
तारा :-
ऊं ह्लीं आधारशक्ति तारायै पृथ्वीयां नम: पूजयीतो असि नम:
इस मंत्र का पुरश्चरण 32 लाख जप है। जपोपरांत होम द्रव्यों से होम करना चाहिए।
फल :-
सिद्धि प्राप्ति के बाद साधक को तर्कशक्ति, शास्त्र ज्ञान, बुद्धि कौशल आदि की प्राप्ति होती है।
भुवनेश्वरी :-
ह्लीं
अमावस्या को लकड़ी के पटरे पर उक्त मंत्र लिखकर गर्भवती स्त्री को दिखाने से उसे सुखद प्रसव होता है। गले तक जल में खड़े होकर, जल में ही सूर्यमंडल को देखते हुए तीन हजार बार मंत्र का जप करने वाला मनोनुकूल कन्या का वरण करता है। अभिमंत्रित अन्न का सेवन करने से लक्ष्मी की वृद्धि होती है। कमल पुष्पों से होम करने पर राजा का वशीकरण होता है।
त्रिपुर सुंदरी :-
मंत्र
श्रीं ह्लीं क्लीं एं सौ: ऊं ह्लीं श्रीं कएइलह्लीं हसकहलह्लीं संकलह्लीं सौ: एं क्लीं ह्लीं श्रीं
विधि :-
इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जप के पश्चात त्रिमधुर (घी, शहद, शक्कर) मिश्रित कनेर के पुष्पों से होम करना चाहिए।
फल
कमल पुष्पों के होम से धन व संपदा प्राप्ति, दही के होम से उपद्रव नाश, लाजा के होम से राज्य प्राप्ति, कपूर, कुमकुम व कस्तूरी के होम से कामदेव से भी अधिक सौंदर्य की प्राप्ति होती है। अंगूर के होम से वांछित सिद्धि व तिल के होम से मनोभिलाषा पूर्ति व गुग्गुल के होम से दुखों का नाश होता है। कपूर के होमत्व से कवित्व शक्ति आती है।
छिन्नमस्ता :-
ऊं श्रीं ह्लीं ह्लीं वज्र वैरोचनीये ह्लीं ह्लीं फट् स्वाहा
इस मंत्र का पुरश्चरण चार लाख जप है। जप का दशांश होम पलाश या बिल्व फलों से करना चाहिए।
तिल व अक्षतों के होम से सर्वजन वशीकरण, स्त्री के रज से होम करने पर आकर्षण, श्वेत कनेर पुष्पों से होम करने से रोग मुक्ति, मालती पुष्पों के होम से वाचासिद्धि व चंपा के पुष्पों से होम करने पर सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
धूमावती :_
मंत्र
ऊं धूं धूं धूमावती स्वाहा
इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जप का दशांश तिल मिश्रित घृत से होम करना चाहिए।
नीम की पत्ती व कौए के पंख पर उक्त मंत्र खओ 108 बार पढ़कर देवता का नाम लेते हुए धूप दिखाने से शत्रुओं में परस्पर विग्रह होता है।
बगलामुखी :-
ऊं ह्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिव्हां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ऊं स्वाहा
इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जपोपरांत चंपा के पुष्प से दशांश होम करना चाहिए। इस साधना में पीत वर्ण की महत्ता है। इंद्रवारुणी की जड़ को सात बार अभिमंत्रित करके पानी में डालने से वर्षा का स्तंभन होता है। सभी मनोरथों की पूर्ति के लिए एकांत में एक लाख बार मंत्र का जप करें। शहद व शर्करायुत तिलों से होम करने पर वशीकरण, तेलयुत नीम के पत्तों से होम करने पर हरताल, शहद, घृत व शर्करायुत लवण से होम करने पर आकर्षण होता है।
मातंगी :-
ऊं ह्लीं एं श्रीं नमो भगवति उच्छिष्ट चांडालि श्रीमातंगेश्वरि सर्वजन वंशकरि स्वाहा
इस मंत्र का पुरश्चरण दस हजार जप है। जप का दशांश शहद व महुआ के पुष्पों से होम करना चाहिए। काम्य प्रयोग से पूर्व एक हजार बार मूलमंत्र का जाप करके पुन: शहदयुक्त महुआ के पुष्पों से होम करना चाहिए। पलाश के पत्तों या पुष्पों के होम से वशीकरण, मल्लिका के पुष्पों के होम से लाभ, बिल्व पुष्पों से राज्य प्राप्ति, नमक से आकर्षण होता है।
कमला :-
ऊं नम: कमलवासिन्यै स्वाहा
दस लाख जप करें। दशांश शहद, घी व शर्करा युक्त लाल कमलों से होम करें, तो सभी कामनाएं पूर्ण होंगी। समुद्र से गिरने वाली नदी के जल में आकंठ जप करने पर सभी प्रकार की संपदा मिलती है।
महालक्ष्मी :-
ऊं श्रीं ह्लीं श्रीं कमले कमलालयै प्रसीद प्रसीद ऊं श्रीं ह्लीं श्रीं महालक्ष्मयै नम:
एक लाख बार जप करें। शहद, घी व शर्करायुक्त बिल्व फलों से दशांश होम करने से साधक के घर में लक्ष्मी वास करती है। यदि किसी को अधिक धन की प्रबल कामना हो, तो वह सत्य वाचन करे, लक्ष्मी मंत्र व श्रीसूक्त का पाठ व मंत्र करे। पूर्वाभिमुख होकर भोजन करे व वार्तादि भी पूर्वाभिमुख होकर करे। जल में नग्न होकर स्नान न करें। तेल मलकर भोजन करें। अनावश्यक रूप से भू-खनन न करें।
// श्री महाकाली यन्त्र //
श्मशान साधना मे काली उपासना का बङा महत्व है। इसी सन्दर्भ मे महाकाली यन्त्र का प्रयोग शत्रु नाश, मोहन, मारण, उच्चाट्न आदि कार्यों में प्रयुक्त होता है। मध्य मे बिन्दू, पांच उल्ट कोण, तीन वृत कोण, अष्टदल वृत एवं भूरपुर से आवृत महाकाली का यन्त्र तैयार करे।
इस यन्त्र का पूजन करते समय शव पर आरुढ, मुण्ड्माला धारण की हुई, खड्ग, त्रिशूल, खप्पर व एक हाथ मे नर-मुण्ड धारण की हुई, रक्त जिह्वा लपलपाती हुई भयंकर स्वरुप वाली महाकाली का ध्यान किया जाता है। जब अन्य विद्यायें विफल हो जाती है तब इस यन्त्र का सहारा लिया जाता है।
महाकाली की उपासना अमोघ मानी गई है। इस यन्त्र के नित्य पूजन से अरिष्ट बाधाओं का स्वतः ही नाश होकर शत्रुओ का पराभव होता है। शक्ति के उपासकों के लिए यह यन्त्र विशेष फलदायी है। चैत्र, आषाढ, आश्विन एवं माघ की अष्टमी इसकी साधना हेतु सर्वश्रेष्ठ काल माना गया है।
आद्या काली स्तोत्र :-
त्रिलोक्य विजयस्थ कवचस्य शिव ऋषि ,
अनुष्टुप छन्दः, आद्य काली देवता, माया बीजं,
रमा कीलकम , काम्य सिद्धि विनियोगः || १ ||
ह्रीं आद्य मे शिरः पातु श्रीं काली वदन ममं,
हृदयं क्रीं परा शक्तिः पायात कंठं परात्परा ||२||
नेत्रौ पातु जगद्धात्री करनौ रक्षतु शंकरी,
घ्रान्नम पातु महा माया रसानां सर्व मंगला ||३||
दन्तान रक्षतु कौमारी कपोलो कमलालया,
औष्ठांधारौं शामा रक्षेत चिबुकं चारु हासिनि ||४|
ग्रीवां पायात क्लेशानी ककुत पातु कृपा मयी,
द्वौ बाहूबाहुदा रक्षेत करौ कैवल्य दायिनी ||५||
स्कन्धौ कपर्दिनी पातु पृष्ठं त्रिलोक्य तारिनी,
पार्श्वे पायादपर्न्ना मे कोटिम मे कम्त्थासना ||६||
नभौ पातु विशालाक्षी प्रजा स्थानं प्रभावती,
उरू रक्षतु कल्यांनी पादौ मे पातु पार्वती ||७||
जयदुर्गे-वतु प्राणान सर्वागम सर्व सिद्धिना,
रक्षा हीनां तू यत स्थानं वर्जितं कवचेन च ||८||
इति ते कथितं दिव्य त्रिलोक्य विजयाभिधम,
कवचम कालिका देव्या आद्यायाह परमादभुतम ||९||
पूजा काले पठेद यस्तु आद्याधिकृत मानसः,
सर्वान कामानवाप्नोती तस्याद्या सुप्रसीदती ||१०||
मंत्र सिद्धिर्वा-वेदाषु किकराह शुद्रसिद्धयः,
अपुत्रो लभते पुत्र धनार्थी प्राप्नुयाद धनं ||११|
विद्यार्थी लभते विद्याम कामो कामान्वाप्नुयात
सह्स्त्रावृति पाठेन वर्मन्नोस्य पुरस्क्रिया ||१२||
पुरुश्चरन्न सम्पन्नम यथोक्त फलदं भवेत्,
चंदनागरू कस्तूरी कुम्कुमै रक्त चंदनै ||१३||
भूर्जे विलिख्य गुटिका स्वर्नस्याम धार्येद यदि,
शिखायां दक्षिणे बाह़ो कंठे वा साधकः कटी ||१४||
तस्याद्या कालिका वश्या वांछितार्थ प्रयछती,
न कुत्रापि भायं तस्य सर्वत्र विजयी कविः ||१५||
अरोगी चिर जीवी स्यात बलवान धारण शाम,
सर्वविद्यासु निपुण सर्व शास्त्रार्थ तत्त्व वित् ||१६||
वशे तस्य माहि पाला भोग मोक्षै कर स्थितो,
कलि कल्मष युक्तानां निःश्रेयस कर परम ||१७||
जय सनातन सेना............
जय जय श्री राम........
जय महाकाल...........
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