Jun 7, 2013

धर्म ----कर्म -और -मोक्ष - स्वामी विवेकानंद

*******धर्म ----कर्म -और -मोक्ष - स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार **** 6 स्वामी जी अजमेर में थे, धर्मचर्चा चल रही थी -किसी ज्ञानार्थी ने स्वामी जी से कहा " हमने श्र्स्टी का चरम सत्य पाया। फिर भी आज हम ,इतने पतित क्यों हैं ? हम ये दुर्दिन क्यों देख रहे हैं ?" "धर्म के लोप के कारण।" स्वामीजी के स्वर में पीड़ा का चीत्कार था, "धर्म का लोप होने से भारत की अवनति हुई। अवनति ही नहीं, यह दुर्गति हुई " उत्तर में प्रश्न के रूप में जिज्ञासा आणि थी और वो आई -" धर्म तो हमारे यहाँ अब भी है और किसी भी देश से अधिक है " ."धर्म नहीं, धर्म की भ्रान्ति है। धर्म बहुत कम है ,जाति के आधार वाला, सम्प्रदाय के आधार वाला ,धर्म ज्यादा है-पाखण्ड का बोलबाला है "' स्वामी जी आगे बोले " धर्म को जीना किसी ने सिखा ही नहीं, और मोक्ष प्राप्ति में लग गए, मोक्ष प्राप्ति की कामना ही हमारी, दुर्गति का कारण है " गोष्ठी में एक अकुलाहट भरी शान्ति सी छा गई। सब स्वामी जी की और प्रश्न की निगाहों से देखने लगे ? स्वामी जी बोले " भोग ना होने से त्याग नहीं होता। पहले भोग करो,फिर त्याग होगा।" स्वामी बोले, हुआ क्या ? लोग सन्यासी या त्यागी तो हो नहीं पाए, अग्रहस्थ हो गए। कर्म -जो उनका धर्म था -से विमुख हो गए। सारे के सारे लोग, कपड़ो से तो सन्यासी हो गये ; किन्तु उनका मन सन्यस्त नहीं हो सका।"......"उसके लिए अपेक्षित तपस्या -कर्म तपस्या -तो किसी ने की नहीं थी। वे न इधर के रहे और ना उधर के।" ...."ना ही उन्हें मोक्ष मिला और ना ही वो धर्म के अनुसार जी पाए, अपने आपको पाखंड की गोद में डालकर, धर्म के ठेकदार बन गए। धार्मिक न बनकर, धर्म के तस्कर बन गए " " हिन्दू शास्त्र कहते हैं - तुम गृहस्थ हो, तुम्हारे लिए वे सब बाते जरुरी नहीं हैं, जो किसी मोक्ष को पाने वाले के लिए जरुरी हैं। तुम अपने धर्म का आचरण करो" .... स्वामी जी लग रहा था जैसे की अपने आप से ही बाते करने लगे थे, "पहले मोक्षार्थी होने की योग्यता प्राप्त करो। अपने मोह के कारन एक हाथ तो लांघ नहीं सकते और लंका लांघ जाना चाहते हो? क्या यह उचित है ?" "दो आदमियों का पेट भर नहीं सकते, दो लोगो के साथ सहमत होकर, अपने स्वार्थ का दमन कर, प्रभु की श्र्स्टी के लिए कोई कल्याणकारी काम नहीं कर सकते हो, पर मोक्ष लेने दौड़ पड़े हो। मोक्ष पाने की प्रथम सीढ़ी ही भूल गए।".... "सबसे पहले हमें मानव ही बनना होगा और धर्म के अनुसार कर्म को अपने आचरण में लाना होगा। समाज के कमजोर वर्ग को गले से लगाना होगा। अपनी -अपनी सामर्थ्य के अनुसार समाज का कल्याण करना होगा " स्वामी जी ने आगे कहा , "गृहस्थों को बड़े उतशाह के साथ अर्थोपार्जन कर स्त्री और परिवार के दस प्राणियों का पालन करना होगा।दस कल्याणकारी कार्य करने होंगे। समाज के हित में त्याग करना होगा।".... "एषा ना कर सकने पर तुम मनुष्य किस बात के ? जब तुम आदर्श गृहस्थ ही नहीं प्रमाणित हो सके तो फिर मोक्ष की चर्चा ही व्यर्थ है। धर्म- कार्यमूलक है। धार्मिक व्यक्ति का लक्ष्ण है -सदा कर्मशीलता" "हिन्दू धर्म कहता हैं कि धर्म की अपेक्षा, मोक्ष बहुत बड़ा है, सही ह, किन्तु धर्म के बिना मोक्ष नहीं मिल सकता है। सबसे पहले धर्म करना होगा यानी कर्म करना होगा उसको निभाना होगा।समाज के कल्याण के लिए कुछ करना ही होगा। धर्म अर्थार्थ सत्कर्म किये बिना -मोक्ष संभव ही नहीं है :" "तो क्या भक्ति से संसार में सब कुछ ठीक नहीं हो सकता है" -किसी ने जिज्ञासा की *ॐ नाम का जप करना- इस से सब कार्यों की सीधी होती है। सब पापों का नाश होता है" शास्त्रों की ये सारी अच्छी बाते, सच्ची अवश्य हैं, किन्तु देखा जाता है कि लाखो मनुष्य ॐ कार का जप करते हैं, हरिनाम लेने में पागल हो जाते हैं, रात दिन 'प्रभु जो करे ',कहते रहते हैं ; पर उन्हें मिलता क्या है ? स्वामीजी जी रूककर लोगो की और गहन द्रस्ठी से देखा और

गंभीर स्वर में बोले -" तब खोज करनी होगी की किसका जप यथार्थ है ? किसके मुख में हरिनाम वज्रवत अमोघ है। कौन सचमुच भगवान् की शरण में जा सकता है ? ....और इन सारे प्रश्नों का उत्तर है : वही, जिसने कर्म द्वारा अपनी चित शुधि का ली है, अर्थार्थ जो धार्मिक है और धार्मिक वाही है जो कर्म करता है और अपने कर्मो से अपना एवं समाज का कल्याण करता है "ॐ हरि ॐ : अरुण गर्ग ..... साभार पूत अनोखो जायो .

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