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एक
समय की बात है। चाणक्य अपमान भुला नहीं पा रहे थे। शिखा की खुली गांठ हर
पल एहसास कराती कि धनानंद के राज्य को शीघ्राति शीघ्र नष्ट करना है।
चंद्रगुप्त के रूप में एक ऐसा होनहार शिष्य उन्हें मिला था जिसको उन्होंने
बचपन से ही मनोयोग पूर्वक तैयार किया था।
अगर चाणक्य प्रकांड
विद्वान थे तो चंद्रगुप्त भी असाधारण और अद्भुत शिष्य था। चाणक्य बदले की
आग से इतना भर चुके थे कि उनका विवेक भी कई बार ठीक से काम नहीं करता था।
चंद्रगुप्त ने लगभग पांच हजार घोड़ों की छोटी-सी सेना बना ली थी। सेना
लेकर उन्होंने एक दिन भोर के समय ही मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पर आक्रमण
कर दिया। चाणक्य, धनानंद की सेना और किलेबंदी का ठीक आकलन नहीं कर पाए और
दोपहर से पहले ही धनानंद की सेना ने चंद्रगुप्त और उसके सहयोगियों को बुरी
तरह मारा और खदेड़ दिया।
चंद्रगुप्त बड़ी मुश्किल से जान बचाने में सफल हुए। चाणक्य भी एक घर में
आकर छुप गए। वह रसोई के साथ ही कुछ मन अनाज रखने के लिए बने मिट्टी के
निर्माण के पीछे छुपकर खड़े थे। पास ही चौके में एक दादी अपने पोते को खाना
खिला रही थी।
दादी ने उस रोज खिचड़ी बनाई थी। खिचड़ी गरमा-गरम
थी। दादी ने खिचड़ी के बीच में छेद करके गरमा-गरम घी भी डाल दिया था और
घड़े से पानी भरने गई थी। थोड़ी ही देर के बाद बच्चा जोर से चिल्ला रहा था
और कह रहा था- जल गया, जल गया।
दादी ने आकर देखा तो पाया कि बच्चे ने गरमा-गरम खिचड़ी के बीच में अंगुलियां डाल दी थीं।
दादी बोली- 'तू चाणक्य की तरह मूर्ख है, अरे गरम खिचड़ी का स्वाद लेना हो
तो उसे पहले कोनों से खाया जाता है और तूने मूर्खों की तरह बीच में ही हाथ
डाल दिया और अब रो रहा है...।'
चाणक्य बाहर निकल आए और बुढ़िया के
पांव छूए और बोले- आप सही कहती हैं कि मैं मूर्ख ही था तभी राज्य की
राजधानी पर आक्रमण कर दिया और आज हम सबको जान के लाले पड़े हुए हैं।
चाणक्य ने उसके बाद मगध को चारों तरफ से धीरे-धीरे कमजोर करना शुरू किया
और एक दिन चंद्रगुप्त मौर्य को मगध का शासक बनाने में सफल हुए।
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