Apr 24, 2013

आदिवासी खाने में करते हैं इन खास चीजों का USE, इसलिए बीमार नहीं होते

Photo: आदिवासी खाने में करते हैं इन खास चीजों का USE, इसलिए बीमार नहीं होते
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अनियंत्रित खाद्य शैली, रफ्तार भरी जीवन चर्या, पाश्चात्य भोज्य पदार्थों जिन्हें फ़ास्ट फ़ूड के तौर पर बाजार में बेचा जाता है, और तेजी से फ़ैलता पिज्जा कल्चर हमें तथाकथित रूप से "मार्डन" जरूर बना रहा है किन्तु सार सिर्फ एक बात पर निकाला जा सकता है कि मार्डन या विकसित समाज के हम जैसे लोगों की औसत जीवन आयु 60से 65 वर्ष है वहीं इन आदिवासियों की 80 से 85 वर्ष।
आखिर विकसित और स्वस्थ कौन हुआ? हम या वो, जो आज भी आदिवासी कहलाते है। ज्यादा विकसित और पैसा कमाने की दौड में हमने अपने और अपने परिवार के लालन-पालन में पोषक तत्वों को कहीं खो दिया है। आहार के नाम पर कृत्रिम रंगों से सजी सब्जियाँ और पाश्चात्य "फास्ट फूड" का आगमन हमारी सेहत की बर्बादी के लिए किसी झनझनाते अलार्म से कम नहीं है।

आदिवासियों के पारंपरिक खान-पान और उनके औषधीय महत्व जैसी रोचक जानकारियों का जिक्र कर रहें हैं डॉ दीपक आचार्य (डायरेक्टर-अभुमका हर्बल प्रा. लि. अहमदाबाद)। डॉ. आचार्य पिछले १५ सालों से अधिक समय से भारत के सुदूर आदिवासी अंचलों जैसे पातालकोट (मध्यप्रदेश), डाँग (गुजरात) और अरावली (राजस्थान) से आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान को एकत्रित करने का काम कर रहे हैं और ऐसे विषय जानकार हैं जो अपने विषय को पहले विज्ञान की नजरों से देखते हैं और फिर परंपराओं के नजरिये से....

1. आदिवासियों के भोजन में हरी पत्तियों वाली साग-भाजियों की भरमार होती हैं। इनमें से अनेक भाजियाँ जैसे लाल-भाजी, कुल्थी, डोमा, पालक, मेथी और चौलाई आदि का व्यवसायीकरण भी हुआ है। आदिवासियों के अनुसार शरीर में ताकत और चपलता बढ़ाने के लिए लाल भाजी बडी ही महत्वपूर्ण है।

2. कुल्थी, डोमा और चौलाई जैसी भाजियाँ रक्त के लाल कणों (क्रक्चष्ट) की संख्या बढ़ाने के साथ ब्लड प्लेटलेट्स (बिम्बाणु) को भी बढ़ाते है यानि आपकी ताकत बढाने और आपको स्वस्थ रखने की ताकत इन भाजियों में समाहित है।

3. मध्यप्रदेश के पातालकोट के आदिवासी मुनगा/ सहजन की पत्तियों की चटनी तैयार कर भोजन के साथ बडे़ आनंद से खाते हैं साथ ही मुनगे की फ़ल्लियाँ भी दाल और सब्जी में डालते हैं। मुनगे की पत्तियों और फ़ल्लियों में विटामिन ए की प्रचुरता आधुनिक विज्ञान अच्छी तरह से साबित कर चुका है।

4. आँखों की बेहतर रौशनी के लिए मुनगे की फ़ल्लियों को अतिमहत्वपूर्ण माना जाता है।कच्ची पत्ता गोभी को आदिवासी बच्चों के लिए बहुत लाभदायक मानते हैं। 8-10 महीने की उम्र के जिन बच्चों का वजन कम होता है उन्हें आधा से एक कप मात्रा में पत्ता गोभी का रस पिलाया जाता है।

5. आदिवासी मुनगे की पत्तियों को बेसन के साथ मिलाकर पकौडे़ भी बनाते है। इन आदिवासियों के अनुसार पेट में कृमि (वर्म) होने की स्थिति में यदि मुनगे की चटनी अथवा पकौड़े खिलाए जाए तो कृमि मृत होकर शौच से बाहर निकल आते हैं।

6. कुन्दरू के फल में कैरोटीन प्रचुरता से पाया जाता है जो विटामिन ए का दूत कहलाता है। कुन्दरू में कैरोटीन के अलावा प्रोटीन, फाईबर और कैल्शियम जैसे महत्वपूर्ण तत्व भी पाए जाते है। गुजरात के डाँगी आदिवासियों के बीच कुंदरू की सब्जी बडी प्रचलित है। इन आदिवासियों के अनुसार इस फल की अधकच्ची सब्जी लगातार कुछ दिनों तक खाने से आखों से चश्मा तक उतर जाता है।

7. माना जाता है कि कुन्दरु की सब्जी के निरंतर उपभोग से बाल झडने का क्रम बंद हो जाता है, गंजेपन से भी बचा जा सकता है।

8. डाँग में आदिवासी कोमल बाँस की सब्जी बनाते हैं जो कि स्फ़ुर्तिदायक, रक्त शोधक, घाव सुखाने और मूत्रजनित रोगों के लिए उत्तम आहार हैं।पातालकोट के आदिवासी मक्के  के आटे से बनी चपातियों के साथ ही  लालमिर्च की चटनी खाते हैं। उनका मानना है कि इससे शरीर को भरपूर ऊर्जा और ताकत मिलती है।

9. पातालकोट में महुआ के फूलों को सुखाकर पाउडर/ आटा तैयार किया जाता है और इससे चपाती बनायी जाती है। वैसे आधुनिक शोधों के परिणामों को देखा जाए तो महुए के सूखे फूल मूत्रजनित रोगो के निवारण के लिए फायदेमंद है और ये टॉनिक की तरह भी कार्य करते हैं।

10. डाँग गुजरात में आदिवासी घुईयाँ या अरबी के पत्तों (200 ग्राम) को उबालते हैं, थोडी काली मिर्च डालकर इस उबले रस का सेवन दिन में दो बार करते हैं। पत्तियों को कम तेल में हल्का पकाकर सब्जी के तौर पर भी सेवन किया जाता है, माना जाता है कि हाईपरटेंशन या उच्च रक्तचाप के लिए ये एक बेहतर उपाय है।

11. घुईयाँ की पत्तियों से बने पकौडों के सेवन से आर्थरायटिस और अन्य जोड के रोगों में जबरदस्त फायदा होता है।डांग गुजरात के आदिवासी भोजन में वहां का स्थानीय अनाज जिसे रागी या नागली कहा जाता है के पापड़ तैयार कर खाते हैं। विज्ञान भी मानता है कि इसमें बहुत अधिक मात्रा में  प्रोटीन पाया जाता है।

12. पातालकोट जैसे दूरगामी आदिवासी अंचलों में प्रो-बायोटिक आहार "पेजा" दैनिक आहार के रूप में सदियों से हैं और इसका भरपूर सेवन भी किया जाता है। पेजा एक ऐसा व्यंजन है जो चावल, छाछ, बारली, निंबू और कुटकी को मिलाकर बनाया जाता है। आदिवासी हर्बल जानकार इस आहार को कमजोरी, थकान और बुखार आने पर रोगियों को देते है।

13. पेजा वास्तव में एक किण्वित (फरमेंटेड) आहार है जो बड़ा ही स्वादिष्ट होता हैं। लोग इसे उल्टी, दस्त, पेट दर्द और पेट से संबंधित अन्य विकारों के लिए रोगी को देते हैं। जो लोग लगातार एण्टीबायोटिक्स लेते हैं और इन दवाओं के नकारात्मक असर से परेशान हो तो पेजा सेहत को सामान्य करने में काफी मददगार साबित होता है।

14. तुरई के छिलकों की चटनी तैयार कर आदिवासी बुखार से निजात पाए व्यक्ति को जरूर देते हैं, इनका मानना है कि ये शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता को पुन: स्थापित करने में मददगार होती है।

15. प्रतिदिन भोजन के साथ किसी न किसी रूप से टमाटर लिया जाना इन आदिवासियों में आवाश्यक माना जाता है। टमाटर फाईबर, कार्बोहाइड्रेड्स, पोटेशियम और लौह तत्वों से भरपूर होते हैं। टमाटर में वसा और सोडियम की मात्रा भी कम होती है और इसमें लाईकोपीन नामक प्रचलित एंटीओक्सीडेंट भी पाया जाता हैं।

आर्यावर्त भरतखण्ड संस्कृति
आर्यावर्त भरतखण्ड संस्कृति 
आदिवासी खाने में करते हैं इन खास चीजों का USE, इसलिए बीमार नहीं होते
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अनियंत्रित खाद्य शैली, रफ्तार भरी जीवन चर्या, पाश्चात्य भोज्य पदार्थों जिन्हें फ़ास्ट फ़ूड के तौर पर बाजार में बेचा जाता है, और तेजी से फ़ैलता पिज्जा कल्चर हमें तथाकथित रूप से "मार्डन" जरूर बना रहा है किन्तु सार सिर्फ एक बात पर निकाला जा सकता है कि मार्डन या विकसित समाज के हम जैसे लोगों की औसत जीवन आयु 60से 65 वर्ष है वहीं इन आदिवासियों की 80 से 85 वर्ष।
खिर विकसित और स्वस्थ कौन हुआ? हम या वो, जो आज भी आदिवासी कहलाते है। ज्यादा विकसित और पैसा कमाने की दौड में हमने अपने और अपने परिवार के लालन-पालन में पोषक तत्वों को कहीं खो दिया है। आहार के नाम पर कृत्रिम रंगों से सजी सब्जियाँ और पाश्चात्य "फास्ट फूड" का आगमन हमारी सेहत की बर्बादी के लिए किसी झनझनाते अलार्म से कम नहीं है।

आदिवासियों के पारंपरिक खान-पान और उनके औषधीय महत्व जैसी रोचक जानकारियों का जिक्र कर रहें हैं डॉ दीपक आचार्य (डायरेक्टर-अभुमका हर्बल प्रा. लि. अहमदाबाद)। डॉ. आचार्य पिछले १५ सालों से अधिक समय से भारत के सुदूर आदिवासी अंचलों जैसे पातालकोट (मध्यप्रदेश), डाँग (गुजरात) और अरावली (राजस्थान) से आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान को एकत्रित करने का काम कर रहे हैं और ऐसे विषय जानकार हैं जो अपने विषय को पहले विज्ञान की नजरों से देखते हैं और फिर परंपराओं के नजरिये से....

1. आदिवासियों के भोजन में हरी पत्तियों वाली साग-भाजियों की भरमार होती हैं। इनमें से अनेक भाजियाँ जैसे लाल-भाजी, कुल्थी, डोमा, पालक, मेथी और चौलाई आदि का व्यवसायीकरण भी हुआ है। आदिवासियों के अनुसार शरीर में ताकत और चपलता बढ़ाने के लिए लाल भाजी बडी ही महत्वपूर्ण है।

2. कुल्थी, डोमा और चौलाई जैसी भाजियाँ रक्त के लाल कणों (क्रक्चष्ट) की संख्या बढ़ाने के साथ ब्लड प्लेटलेट्स (बिम्बाणु) को भी बढ़ाते है यानि आपकी ताकत बढाने और आपको स्वस्थ रखने की ताकत इन भाजियों में समाहित है।

3. मध्यप्रदेश के पातालकोट के आदिवासी मुनगा/ सहजन की पत्तियों की चटनी तैयार कर भोजन के साथ बडे़ आनंद से खाते हैं साथ ही मुनगे की फ़ल्लियाँ भी दाल और सब्जी में डालते हैं। मुनगे की पत्तियों और फ़ल्लियों में विटामिन ए की प्रचुरता आधुनिक विज्ञान अच्छी तरह से साबित कर चुका है।

4. आँखों की बेहतर रौशनी के लिए मुनगे की फ़ल्लियों को अतिमहत्वपूर्ण माना जाता है।कच्ची पत्ता गोभी को आदिवासी बच्चों के लिए बहुत लाभदायक मानते हैं। 8-10 महीने की उम्र के जिन बच्चों का वजन कम होता है उन्हें आधा से एक कप मात्रा में पत्ता गोभी का रस पिलाया जाता है।

5. आदिवासी मुनगे की पत्तियों को बेसन के साथ मिलाकर पकौडे़ भी बनाते है। इन आदिवासियों के अनुसार पेट में कृमि (वर्म) होने की स्थिति में यदि मुनगे की चटनी अथवा पकौड़े खिलाए जाए तो कृमि मृत होकर शौच से बाहर निकल आते हैं।

6. कुन्दरू के फल में कैरोटीन प्रचुरता से पाया जाता है जो विटामिन ए का दूत कहलाता है। कुन्दरू में कैरोटीन के अलावा प्रोटीन, फाईबर और कैल्शियम जैसे महत्वपूर्ण तत्व भी पाए जाते है। गुजरात के डाँगी आदिवासियों के बीच कुंदरू की सब्जी बडी प्रचलित है। इन आदिवासियों के अनुसार इस फल की अधकच्ची सब्जी लगातार कुछ दिनों तक खाने से आखों से चश्मा तक उतर जाता है।

7. माना जाता है कि कुन्दरु की सब्जी के निरंतर उपभोग से बाल झडने का क्रम बंद हो जाता है, गंजेपन से भी बचा जा सकता है।

8. डाँग में आदिवासी कोमल बाँस की सब्जी बनाते हैं जो कि स्फ़ुर्तिदायक, रक्त शोधक, घाव सुखाने और मूत्रजनित रोगों के लिए उत्तम आहार हैं।पातालकोट के आदिवासी मक्के के आटे से बनी चपातियों के साथ ही लालमिर्च की चटनी खाते हैं। उनका मानना है कि इससे शरीर को भरपूर ऊर्जा और ताकत मिलती है।

9. पातालकोट में महुआ के फूलों को सुखाकर पाउडर/ आटा तैयार किया जाता है और इससे चपाती बनायी जाती है। वैसे आधुनिक शोधों के परिणामों को देखा जाए तो महुए के सूखे फूल मूत्रजनित रोगो के निवारण के लिए फायदेमंद है और ये टॉनिक की तरह भी कार्य करते हैं।

10. डाँग गुजरात में आदिवासी घुईयाँ या अरबी के पत्तों (200 ग्राम) को उबालते हैं, थोडी काली मिर्च डालकर इस उबले रस का सेवन दिन में दो बार करते हैं। पत्तियों को कम तेल में हल्का पकाकर सब्जी के तौर पर भी सेवन किया जाता है, माना जाता है कि हाईपरटेंशन या उच्च रक्तचाप के लिए ये एक बेहतर उपाय है।

11. घुईयाँ की पत्तियों से बने पकौडों के सेवन से आर्थरायटिस और अन्य जोड के रोगों में जबरदस्त फायदा होता है।डांग गुजरात के आदिवासी भोजन में वहां का स्थानीय अनाज जिसे रागी या नागली कहा जाता है के पापड़ तैयार कर खाते हैं। विज्ञान भी मानता है कि इसमें बहुत अधिक मात्रा में प्रोटीन पाया जाता है।

12. पातालकोट जैसे दूरगामी आदिवासी अंचलों में प्रो-बायोटिक आहार "पेजा" दैनिक आहार के रूप में सदियों से हैं और इसका भरपूर सेवन भी किया जाता है। पेजा एक ऐसा व्यंजन है जो चावल, छाछ, बारली, निंबू और कुटकी को मिलाकर बनाया जाता है। आदिवासी हर्बल जानकार इस आहार को कमजोरी, थकान और बुखार आने पर रोगियों को देते है।

13. पेजा वास्तव में एक किण्वित (फरमेंटेड) आहार है जो बड़ा ही स्वादिष्ट होता हैं। लोग इसे उल्टी, दस्त, पेट दर्द और पेट से संबंधित अन्य विकारों के लिए रोगी को देते हैं। जो लोग लगातार एण्टीबायोटिक्स लेते हैं और इन दवाओं के नकारात्मक असर से परेशान हो तो पेजा सेहत को सामान्य करने में काफी मददगार साबित होता है।

14. तुरई के छिलकों की चटनी तैयार कर आदिवासी बुखार से निजात पाए व्यक्ति को जरूर देते हैं, इनका मानना है कि ये शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता को पुन: स्थापित करने में मददगार होती है।

15. प्रतिदिन भोजन के साथ किसी न किसी रूप से टमाटर लिया जाना इन आदिवासियों में आवाश्यक माना जाता है। टमाटर फाईबर, कार्बोहाइड्रेड्स, पोटेशियम और लौह तत्वों से भरपूर होते हैं। टमाटर में वसा और सोडियम की मात्रा भी कम होती है और इसमें लाईकोपीन नामक प्रचलित एंटीओक्सीडेंट भी पाया जाता हैं।

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